समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका ( नवेम्बर- दिसम्बर 1997 अंक, पृष्ठ-144) देख रहा था. कुछ दिल को छू गया. अचला शर्मा की एक कविता ' अब भी आते हैं सपने ' शीर्षक से-
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कितना अच्छा है कि
अब भी आते हैं सपने
कुछ गहरी नींद में चलते
कुछ खुली आँखों में बहते
कुछ सुप्त और चेतन की संधि - रेखा पर
असमंजस की तरह झिझकते
पर अब भी आते हैं सपने !
बल्कि अक्सर आते हैं
जहाँ - जहाँ चुटकी काटते हैं
वहां - वहां भीतर का बुझता अलाव
फफोला बन उभर जाता है
देह का वो हिस्सा
जैसे मौत से उबर आता है
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने !
आते हैं
तो कुछ पल ठहर भी जाते हैं
चाहे मुसाफिर कि तरह
लौट जाने के लिए आते हैं,
पर लौट कर कभी -कभी
चिट्ठी भी लिखते हैं
कहते हैं बहुत अच्छा लगा
कुछ दिन
तुम्हारी आँखों में बस कर
तुमने आश्रय दिया
हमें अपना समझ कर,
आभार !
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने
धुप की तरह, पानी की तरह
मिटटी और खाद की तरह
तभी तो
सफ़र का बीज
ऊँचा पेड़ हो गया है
छाँव भले कम हो
भरा - भरा हो गया है,
उसपर लटके हैं
कुछ टूटे, कुछ भूले, कुछ अतृप्त सपने
कुछ चुभते-से, दुखते-से
पराये हो चुके अपने,
फिर भी आते हैं सपने
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने !
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Sunday, September 5, 2010
Sunday, July 18, 2010
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रश्क़ इतना है तुमसे कि ख़ुद को भी
कभी देखता हूँ मैं अच्छी निग़ाह से ।
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दिल का मुआमला था कि हारते ही गए यूं
वर्ना हम तो बाज़ीगरी के उस्ताद थे ...!
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Friday, July 16, 2010
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आना था जिन्हें दिल में, वो सरे-बाम आते रहे
सही पते से हमेशा ग़लत पैग़ाम आते रहे
क्या कहें ! दिल ही दिल में वो गुज़री है क़यामत
इस ज़रा से किनारे पे कितने तूफ़ान आते रहे
छुप के देखा तो नज़र नूर से भर सी गयी
मेरी आँखों में साए से रौशन तमाम आते रहे
कानो में आ के बनते रहे नग्मे हर लफ्ज़ उनके
एक उम्र तक जिन्हें सुबह- शाम गुनगुनाते रहे
हम तड़पते रहे और उन्हें लुत्फ़ आया किया
उनकी तरफ से मेरे लिए दौर नाकाम आते रहे
जो गुजरा है यही तुझपे तू ग़म क्यों करे है
राहे उल्फत के तजुर्बे इस जहां में काम आते रहे .
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आना था जिन्हें दिल में, वो सरे-बाम आते रहे
सही पते से हमेशा ग़लत पैग़ाम आते रहे
क्या कहें ! दिल ही दिल में वो गुज़री है क़यामत
इस ज़रा से किनारे पे कितने तूफ़ान आते रहे
छुप के देखा तो नज़र नूर से भर सी गयी
मेरी आँखों में साए से रौशन तमाम आते रहे
कानो में आ के बनते रहे नग्मे हर लफ्ज़ उनके
एक उम्र तक जिन्हें सुबह- शाम गुनगुनाते रहे
हम तड़पते रहे और उन्हें लुत्फ़ आया किया
उनकी तरफ से मेरे लिए दौर नाकाम आते रहे
जो गुजरा है यही तुझपे तू ग़म क्यों करे है
राहे उल्फत के तजुर्बे इस जहां में काम आते रहे .
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Thursday, July 8, 2010
क्यों ...
क्यों..
हर उस हर्फ़ में
तुम्हारे नाम की ख़ुश्बू आती है ....
जो
मेरी कलम से उठते हैं ....
मेरे ज़ेहन में तुम्हारे वज़ूद
की ख़ुश्बू है,
मेरी ज़िन्दगी में
तुम्हारे इंतज़ार की ख़ुश्बू है
शायद इसीलिए ......!
हर उस हर्फ़ में
तुम्हारे नाम की ख़ुश्बू आती है ....
जो
मेरी कलम से उठते हैं ....
मेरे ज़ेहन में तुम्हारे वज़ूद
की ख़ुश्बू है,
मेरी ज़िन्दगी में
तुम्हारे इंतज़ार की ख़ुश्बू है
शायद इसीलिए ......!
क्या हवाओं का रुख है
क्या हवाओं का रुख है परों से पूछिये
कैसे लोग हैं यहाँ पर घरों से पूछिये
मेरी ज़िन्दगी में कितनी तनहाइयाँ हैं
मेरे आंसुओं में डूबे दरों से पूछिये
आप हो मेहमान या अजनबी मेरे लिए
इन दीवारों और इन दरों से पूछिये
खुदा का दर हैया कि मायूसियों का बोझ
पूछना है तो इन झुके सरों से पूछिये
कैसे लोग हैं यहाँ पर घरों से पूछिये
मेरी ज़िन्दगी में कितनी तनहाइयाँ हैं
मेरे आंसुओं में डूबे दरों से पूछिये
आप हो मेहमान या अजनबी मेरे लिए
इन दीवारों और इन दरों से पूछिये
खुदा का दर हैया कि मायूसियों का बोझ
पूछना है तो इन झुके सरों से पूछिये
क्या यही कम है ...
कोई हस्ती नहीं इंसान हूँ, क्या यही कम है
तेरी आरज़ू में बदनाम हूँ, क्या यही कम है
तेरी महफ़िल में ग़ैरों का हुजूम है बहोत
मैं एक मेहमां बेनाम हूँ क्या यही कम है
न मेरी आरज़ू है न मेरी जुस्तजू तेरे सिवा
बिन बुलाया सही मेहमान हूँ क्या यही कम है
तेरे निबाह से मैं खफा नहीं हूँ हमदम
तेरा रिश्ता एक बेनाम हूँ क्या यही कम है
दो घड़ी फ़ुरसत जो मिले, बताना मुझे
मैं दिल का एक पैग़ाम हूँ क्या यही कम है
तेरी आरज़ू में बदनाम हूँ, क्या यही कम है
तेरी महफ़िल में ग़ैरों का हुजूम है बहोत
मैं एक मेहमां बेनाम हूँ क्या यही कम है
न मेरी आरज़ू है न मेरी जुस्तजू तेरे सिवा
बिन बुलाया सही मेहमान हूँ क्या यही कम है
तेरे निबाह से मैं खफा नहीं हूँ हमदम
तेरा रिश्ता एक बेनाम हूँ क्या यही कम है
दो घड़ी फ़ुरसत जो मिले, बताना मुझे
मैं दिल का एक पैग़ाम हूँ क्या यही कम है
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